पहले कदम का उजाला
रामायण और महाभारत के काल से शुरू करें तो हमारे पास अमर, सम्रद्ध साहित्य है। हमारा जीवन कहीं न कहीं इन्हीं दोनों महाकाव्यों से जुड़ा है। या यूँ कहें कि जीवन में इन दोनों से अलग कोई कथा हो सकती है क्या?
इन दोनों ग्रन्थों ने जीवन के हर रंग को समेटा है। शायद ही जीवन की कोई मिठास या कड़वाहट हो जो इनमें समाने से छूट गई हो।
‘पहले कदम का उजाला’ एक नारी के अपने आप को ऊपर उठाने की दास्तां है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए पहला कदम उठाने के लिए उजाले अपने अंदर ही जगाने पड़ते हैं।
उसके लिए बाहर कोई उजाला नहीं मिल सकता है। या यूँ कहें कि बाहर के अंधेरों से लड़ने के लिए पहला उजाला भीतर ही लाना पड़ता है।
वक़्त जीवन के कईं रंगों को दिखाता है। सीता हो या गांधारी सबने जीवन में अनन्त उतार चढ़ाव देखे। वक़्त ने सबको अपनी आँच पर तपाया है। वक्त निर्विकार भाव से सिर्फ़ हमारे मन की शक्ति को देखता है।
एक इंसान अपने जीवन काल में एक महाभारत ही जी लेता है। इससे अछूते तो गीता का ज्ञान देने वाले कृष्ण भी नहीं रह पाए!
जीवन ने किसे क्या दिया ये ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। हमनें जीवन को उसके अंधेरों-उजालों के साथ कैसे जिया ये महत्व रखता है। यहीं से हम परिभाषित होते हैं।
वीरता याद रहती है। जो युद्ध के परिणाम से भी ज़्यादा महत्व रखती है। जीत से ज़्यादा ज़रूरी युद्ध की तैयारी है। परिणाम से जीवन नहीं जुड़ा है, जीवन कर्म से जुड़ा है।
‘पहले कदम का उजाला’ एक ऐसी ही संघर्ष की यात्रा है। एक बेटी की, बहू के अपमान की, एक पत्नी के सूनेपन की एक कमज़ोर नारी की। एक ऐसी माँ की जो अपनी बेटी को वो सब देना चाहती है जो एक बच्चे की ज़रूरत है।
इसी वक़्त की आँच पर तपकर वह नारी एक सफल इंसान बन सकी। एक शानदार माँ ने अपनी बेटी को जीवन का वो मन्त्र दिया जो आज हम सबकी ज़रूरत है।
कोई भी ख़्वाब देखने वाला छोटा-बड़ा नहीं होता है। एकलव्य को किसने क्या सिखाया था? उस माँ के पास साधन सीमित थे, योग्यता के दायरे भी छोटे थे। लगन सच्ची हो इरादे मज़बूत हो तो लघु कब विशाल बन जाये कोई नहीं जानता है।
जिनके इरादे स्पष्ट, सुदृढ़ हों, वक़्त उनको सफलता का हर पाठ पढ़ा ही देता है। उनका हाथ पकड़कर उन्हें उस मक़ाम तक ले जाता है जहाँ कर्म की लौ जगमगा उठती है।
बहुत कम सुविधाओं के साथ भी सरोज ने अपनी बेटी का मन अपने प्यार से भर दिया। उसके पास सब कुछ कम ही था। उसकी शिक्षा, अनुभव, रास्ते भी तंग ही थे। उसने उन रास्तों में से भी जीने की धारा बना ली। जो एक नदी का रूप ले पाई।
यह उपन्यास एक सन्देश है! जीवन की पूर्णता, सफलता हमारे इरादों में ही छुपी होती है। जिनके पैर नहीं वो पर्वत पर चढ़ जाते हैं। जिनकी आँखें नहीं वो ज्ञान के सागर में डूब सकते हैं। हमारी सफलता की यात्रा हमारी योग्यता, साधन, संपन्नता की मोहताज़ नहीं होती है। वो तो सिर्फ इरादों की भूखी होती है।
जितने इरादे मज़बूत होते हैं, साधना जितनी सघन होती है, गिरते-उठते, हम सब सीख ही जाते हैं। अपनी मंजिल पा ही लेते हैं।
सीमा जैन ‘भारत’
तालियों की गड़गड़ाहट***
सब कुछ इतना अचानक होगा, सोचा भी नहीं था! पता नहीं मुझे क्या हो गया कि मंच पर जाकर मेरे मुंह से वो शब्द अपने आप निकल गये जो मैं हमेशा सोचती थी। मैं दूसरों से कहती थी। जब भी कोई मुझसे कहता कि ‘तुम सफल हो, क्योंकि तुम्हारा परिवार तुम्हारे साथ है!’
एक बहुत बड़ा कार्यक्रम जिसे पूरा देश देख रहा हो ऐसे मंच पर पुरस्कार की कल्पना तो बहुत लोग करते होंगे पर हक़ीकत में उसका सच होने आसान नहीं है। जीत के लिए क्या चाहिए? मेरी नज़र में हुनर, होंसला उससे भी बड़ी होती है लगन! पहला कदम! जिसने उसे बढ़ाया है, सफ़लता ने उसे सम्हाला है।
जीवन में पहला कदम आगे बढ़ाने की हिम्मत अपने अंदर ही जगानी पड़ती है। प्रेरणा के नाम पर यहाँ बहुत कुछ है। पर उजाले तो अपने भीतर जब तक प्रस्फुटित न हो कुछ नहीं हो सकता है। आगे के रास्ते में संघर्ष के दिये की लौ को बहुत इम्तिहान देने पड़ते हैं। पर उस लौ का आलोक अपना आकार ले ही लेता है।
आज इस विशाल मंच पर खड़े होकर लगा, यह लम्हा हर कलाकार अपने जीवन में देखना चाहता है। जिसने इसे देख लिया, उसका जीवन और उसकी साधना धन्य हो गई।
वक़्त से बड़ा बाजीगर कोई नहीं! ये प्यार, नफ़रत, सहयोग, अपमान सब कुछ दिखाता है। उसके इन्हीं सबक में जीवन की सफलता छिपी होती है। हमें आकार देने में सुख से ज़्यादा बड़ा हाथ दुख का होता है। जिसने इसे समझ लिया जीवन उसके लिए एक प्रसाद है।
जिन्होंने सागर पार किये हैं, जिन्होनें पर्वतों को भी जीत लिया है उनका प्रकृति से मुकाबला होता है। वहाँ की विपरीत परिस्तिथियों को जीतना उनका लक्ष्य होता है।
मेरे जैसे कमज़ोर लोग घर से बाहर निकलने के लिए जो सहते हैं वो किसी तूफ़ान या ज्वार – भाटे से कम नहीं होता है। एक कम पढ़ी – लिखी औरत का ख़ुद को स्थापित करना सात समंदर पार करने जैसा, हिमालय पर चढ़ जाने जितना ही मुश्किल होता है।
पहली बार इतने बड़े स्तर पर मुझे पुरस्कार मिल रहा था। पिछले कई महीनों से चल रही कुकिंग कॉम्पिटिशन के हर लेवल को पार करके आज मुझे यह मकाम हासिल हुआ। यह वही सरोज है जिसे उसके घर में सास और पति ने कभी स्वाद के पहले लेवल पर भी पास नहीं किया था।
जो रास्ता वह शादी के सोलह सालों के बाद भी अपने घर में पार नहीं कर पाई थी। वह आज उसने यहाँ पूरा कर लिया। स्वाद के, सजावट के, हुनर के हर स्तर को जीत कर आज मैं यहाँ तक पहुंच पाई थी।
औरत तभी सफल हो पाती है, जब उसका परिवार उसको सहयोग देता है। हम में से अधिकतर लोगों की सोच यही होती है। जब मेरी कुकिंग क्लासेज़ में लोग मुझे कहते थे कि ‘आप इसलिए सफल हो क्योंकि आपका परिवार आपको सहयोग देता है।‘
मैं हमेशा सबको एक ही जवाब देती थी कि ‘यह कतई ज़रूरी नहीं कि हमारी सफलता का कारण हमारे परिवार का सहयोग ही हो! कभी दुख, मजबूरी, जरूरत यह सब भी इंसान को घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर सकती है। वही उसकी सफलता का कारण भी बनती है। उसे काम करना पड़ता है – पैसे के लिए, अपने आत्म सम्मान के लिए, एक बहुत बड़ा संघर्ष, एक बहुत बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ती है। अपनी जगह बनाने के लिए!’
मेरी कक्षाओं में आने वाली, मुझसे पार्टियों का खाना बनवाने वाली कईँ महिलाएँ या कुछ लड़कियों को मैंने भी कुछ करने के लिए तड़फता पाया।
वो सब किसी सहमति, स्वीकृति के बिना बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं। सहमति कोई नहीं देता वो तो ख़ुद ही अपने आपसे लेनी होती है। रास्तों पर चलना आसान होता है। पहला कदम बाहर निकालना मुश्किल होता है।
जो इन रास्तों पर चलने लगते हैं वो जानते हैं यहाँ हर कदम पर वक़्त हमारी बाँहें थामे हमारे साथ ही चलता है। वो हमारे हर पल का साक्षी होता है।
हां, यह बात अलग है कि जैसे-जैसे सफलता मिलती है, वैसे-वैसे विरोधी ताकतें कमजोर होने लगती हैं। वह जो कल तक ताने मारते थे, बुरा कहते थे, नीचे गिराने की कोई कसर नहीं छोड़ते थे। वो सब धीरे-धीरे साथ आने लगते हैं या यह कहें कि बुरा कहना बंद कर देते हैं।
आज जब मैं मंच पर सम्मान लेने को खड़ी हुई तो जो बोलने के लिए सोचा था वो घर से रटकर गई थी। इतनी तैयारी कि थी कि सोचा इससे अच्छा भाषण कोई क्या देगा?
मैं वह सब बोलना तो भूल गई और वह बोल पड़ी जो सालों से अपने मिलने वाली से कहती थी। जो अपनी कुकिंग क्लास में लोगों को समझाना चाहती थी। आज ‘किचन क्वीन’ का ख़िताब तो जीत लिया मगर उस सफलता के पीछे की बात तो मेरे मन से अपने आप बाहर आ गई।
सच में यह वही हुआ जो मैं चाहती थी। यही तो मैं कहना चाहती थी। सफलता के मंच पर जब सब खड़े होते हैं तो पूरी दुनिया एक ही बात कहती हैं:- हर रिश्ते को धन्यवाद देती है, आखिरी में किस्मत को, ईश्वर को, अधिकतर ऐसा ही कुछ होता है।
मगर मैंने जो किया वह शायद कुछ अलग था। जब हम सफलता का हाथ थामे खड़े होते हैं तो अपने काले वक़्त को कोई याद नहीं करता। उजाले में खड़े होकर अंधेरे की बात करना कौन पसंद करता है?
यह कौन कहना चाहता है कि मैं अंधेरों से निकल कर आई हूँ! या मैं जिस कैद में बंद थी वहां से भी आजादी के कुछ रास्ते निकलते थे; या मैंने निकाल लिये और मैं आज यहां पहुँच पाई। यह सब आसान नहीं था, मगर इसके बाद जो हुआ वो मेरा सपना था!
सफलता मिलने के सब के रास्ते अलग-अलग होते हैं! मेरी सफलता का रास्ता था, मेरे घर का दुःख, मेरे पति और सास के द्वारा किया गया मेरा अपमान! मुझे खाना बनाना नहीं आता, मैं घर का कोई काम ठीक से नहीं कर सकती। साथ ही पैसों की ज़रूरत!
मेरे हाथ में अपनी कमाई रखने वाला पति मुझे नहीं मिला था। पर दवा, या फ़ीस के पैसे भी न मिल पायेंगे, ऐसा भी नहीं सोचा था। ज़रूरी जरूरतों के कारण शुरू हुआ यह रास्ता आज इस मंजिल पर आकर पूरा हुआ।
मैं किसी से ठीक से रिश्ते नहीं बना सकती। मैं हर किसी से झगड़ा करती हूं, कोई मुझसे बात करना पसंद नहीं करता है! मैं जब भी पति के द्वारा किये गए अपमान का विरोध करती तो मुझे यही सब सुनने को मिलता था! उनका एक ही मतलब था कि वह जो अपमान करते हैं उसे चुपचाप सुनकर स्वीकार किया जाये। विरोध पर वह तो अपना बचाव ऐसे ही करेंगे। (इन सब बुराईयों में सबसे सच्ची बुराई यही थी कि मैं गरीब परिवार से थी।)
यह सब बहुत सारी औरतें सुनती हैं! मगर कोई बताती नहीं! हम सब की एक ही परेशानी है कि हम यह सोचते हैं कि जो हमें बुरा कहता है वो वैसा ही माहौल बना देता है और फिर दुनिया भी हमें उसी नज़र से देखने लगती है। हम दुनिया को ये कैसे कह सकते हैं कि हम बुरे हैं!?
इसलिए हम हर उस दर्द को, अपने ऊपर किए गए जुल्म को छुपाते हैं। हमारे अपने भी हमकों डांट देते हैं! “ऐसा तो सबके साथ होता है। मेरे साथ भी हुआ पर मैंने तो किसी को नहीं बताया। हमें तो मायके से एक ही सीख के साथ विदा किया गया था” –‘हमें कोई शिक़ायत नहीं चाहिए!’ और यही सब सहते-सहते सालों बीत जाने के बाद यदि कोई महिला सफल हो भी जाती है तो कौन है जो अपना पिछला रोना, रोना चाहेगा? आज हम सफल, हमारा परिवार खुश और हम भी खुश!
सबसे बड़ा संदेश जो इस सफ़लता में छुपा था वह वहीं दम तोड़ देता है। जो कभी बाहर नहीं आ पाता है। जिन्हें सहयोग नहीं मिलता है जो अपमानित होते हैं। वो घुटकर मर जाते हैं! एक आशा की किरण ये भी हो सकती है कोई जान नहीं पाता है।
इस प्रशंसा को लेकर मैं घर जा सकती थी। मगर मेरा संदेश उजालों में गुम हो जाता! आज अंधेरों को याद करना ज़रूरी था। हजारों तकलीफों के बावजूद हम वह सब कर सकते हैं जो हम करना चाहते हैं।
उन अंधेरों में उजाले का पहला कदम मैंने कैसे उठाया ये याद करना व सबको बताना जरूरी था। पर जो हुआ वो बहुत अचानक हो गया। मेरा मन मुझसे पूछे बिना ही वो कर गया जो मैं चाहती थी। उसकी हिम्मत है या नहीं यह तो मुझे भी पता नहीं था।
हो सकता है हममें हुनर कम हो, आगे बढ़ाने की समझ कमज़ोर हो! फिर भी वक्त का हाथ थामे, आशा की लौ का हाथ थामे हम सब सफल हो सकते हैं! हमें सफलता के लिए सिर्फ एक ही चीज चाहिए वह है – इच्छाशक्ति!
मैंने मंच पर अपनी बात पूरी कि और जिस ख़ुशी का अहसास मेरे मन में बहने लगा वो अद्भुत था। पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। रोशनी से जगमगाता मंच आज इतना उजला लगा जैसे सारे आसमान के सितारे मेरे सर पर चमक उठे हों। जैसे ही मेरी नज़र सामने की सीट पर गई जो अब ख़ाली थी। मेरे पति! वहाँ से उठ चुके थे।